BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - ३ :
तद्धित प्रकरण
[ (अपत्यार्थ) लघुसिद्धान्तकौमुदी ]

प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।

उत्तर -

१. आश्वपतम् (अश्वपतेः अपत्यम्)

 

अश्वपतिङस् - ‘समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'अश्वपत्यादिभ्यश्च' से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय।
अश्वपति ङस् अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' से सुप् (ङस्) लोप
अश्वपति+अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
अश्वपति+अ - 'तद्धितेष्वक्वामादेः' से अश्वपति के आदि अकार को वृद्धि आकार
अश्वपति+अ 'यचि भम्' से भ संज्ञा तथा 'यस्येति च' से भसंज्ञक इकार का लोप आश्वपत पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
आश्वपत + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् आदेश
आश्वपत+अम् - अमिपूर्व:' से पूर्वरूप एकादेश होकर
आश्वपतम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

२. दैत्यः (दितेः अपत्यम्)

दिति ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरप्रदाण्ण्यः' से अपत्य अर्थ में ण्य प्रत्यय।
दिति ङस् +ण्य - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो: '
से सुप् (ङस्) का लुक।
दिति + ण्य - ण्य के अनुबन्ध को हटाने पर
दिति+प - ' तद्धितेष्वचामादेः' से 'दिति' के आदि इकार को वृद्धि ऐकार होकर।
दैति + य - 'यस्येति च' से भसंज्ञक अन्त्य इकार का लोप।
दैत्य - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा को एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय |
दैत्य + स्' - 'ससजुषो रु' से सकार को रु' (र्)
दैत्यर् - खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ की विसर्ग होकर
दैत्यः - यह रूप सिद्ध हुआ।

३. आदित्यः (अदिते: अपत्यम्)

अदिति ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः' से अपत्य अर्थ में ण्य प्रत्यय।
अदिति + ङस् + ण्य - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयो:' से सुप् ङस् का लुक।
अदिति+ण्य - ण्य के अनुबन्ध को हटाने पर
अदिति + य - ' तद्धितेष्वचामादेः' से 'अदिति' के आदि अकार को वृद्धि - आकार
अदिति+य - 'यस्येति च' से भसञ्जक अंग के अन्त्य इकार का लोप होकर।
आदित्य - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा को एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
आदित्य+स् - ‘ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
आदित्यर् - खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ की विसर्ग होकर
आदित्यः - यह रूप सिद्ध हुआ।

४. दैव्यम् (दैवम्) देवस्य अपत्यम्

देव ङस् - ‘अर्थवदधातुरप्रत्यमः प्रातिपदिकम् ' से देव की प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'देवाय्
यत्रौ' रम वार्तिक से यज् प्रत्यय।
देव + ङस् + यञ् - 'सुपो धातुप्रातिपदिकात्' से सुप् (ङस्) का लुक्
देव+यञ् - यञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
देव+य - 'यस्येति च' से भसञ्जक अकार का लोप करके
देव्य - 'तद्धितेष्वचामादे' से एकार को वृद्धि - ऐकार
दैव्य- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार
'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
दैव्य + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् आदेश।
दैव्य+अम् - 'अमिपूर्वः' से पूर्व रूप एकादेश होकर
दैव्यम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

५. वामदेव्यम्।

वामदेव टा + यत् - वामदेव टा इस सुबन्त से 'वामदेवाड्डयडड्यौ ' सूत्र से 'ड्यत्' प्रापय।
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा।
वामदेव+यत् - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रातिपदिक के अवयव सुप् (टा) का लोन वामदेव+य - तकार की 'हलन्त्यम्' सूत्र से तथा डकार की 'चुटू' सूत्र से इत्संज्ञा तथा
तस्यलोपः से लोप।
वामदेव+य - ङित् होने से 'टे' सूत्र से 'अ' (टिं) का लोप |
वामदेव्य + सु - सामान्य की विवक्षा में 'सामान्येनपुंसकं सूत्र से नपुंसकलिंग में होने से 'प्रथमा एकवचन' की विवक्षा में स्वौजसमौट०' इत्यादि सूत्र से सु प्रत्यय आया।
वामदेव्य + अम् - 'अतोऽम्' सूत्र से 'सु' का 'अम्' आदेश।
वामदेव्यम् - 'अमिपूर्व:' सूत्र से पूर्वरूप आदेश।

६. बाह्य: (बहिर्मव)

वहिस् ङि - 'अर्थवद्धातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् ' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'तत्रभवः' के अर्थ में 'बहिषष्टिलोपो यञ्च इस वार्तिक से यञ् प्रत्यय तथा टि भाग ङस् का लोप होकर
वह+ङि+यञ् - ‘अव्ययादाप्सुपः से सुप् (ङि) का लोप।
वह + यञ् - यञ् के अनुबन्ध को हटाने पर।
वह+य - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि-आकार होकर
वाह्य - पुनः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
वाह्य + स् - 'ससजुषो रु' से एकार को रु (र्)
वाह्यर् - खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ की विसर्ग होकर
दैत्यः - यह रूप सिद्ध हुआ।

७. वाहीकः (बहिर्भवः)

बहिस्- ङि - 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् ' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'तत्रभवः' अर्थ
में 'ईकक् च' से ईकक् प्रत्यय तथा टिमांग- इसत् का लोप
बह् + डि + ईकक् - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' से सुप् (ङि) का लुक्
वह् + ईकक् - ईकक् के अनुबन्धों को हटाने पर
वह् + ईक् - 'किति च' से आदि अकार को वृद्धि- आकार
बाहिक - पुनः 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'यारप्रातिपदिकात् के
अधिकार में 'स्वोजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
बाहिक + स्- 'ससजुषो रु' से लकार को रु (र्) प्रत्यय।
बाहिकर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः से रेफ को विसर्ग होकर
वाहिक: - यह रूप सिद्ध हुआ।

८. औत्सः।--

उत्स ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद् वा' अधिकार में उत्सादिभ्योऽञ् से अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय।
उत्स+ङस्+अञ् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रतिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' से सुप् (ङस् का लुक्)
उत्स+अञ - अञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
उत्स+अ - ' तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार की वृद्धि - औकार
औत्स+अ - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप होकर
औत्स - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याय्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्पौजसमौट् ० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
औत्स+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
औत्सर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
औत्सः - यह रूप सिद्ध हुआ।

९. वायव्यम्

वायु सु + यत् - वायु सु इस शब्द से 'वाटवृतुपित्रुषसोयत्' सूत्र से 'यत्' प्रत्यय।
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा।
वायु+यत् - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रातिपदिक के अवयव सुप् (सु) का लोप। वायु+प - त् की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः सूत्र से लोप
वाय् + ओ+प - 'ओर्गुण:' सूत्र से 'उ' को गुण 'ओ'
वाय्+अव्+य - 'वान्तो यि प्रत्यये' सूत्र से 'ओ' को अवादेश।
वायव्य+सु - सामान्य की विवक्षा में 'सामान्ये नपुंसकं सूत्र में नपुंसकं में होने से प्रथमा एकवचन में 'स्वौजसमौट०' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय
वायव्य + अम् - 'अतोऽम्' सूत्र से 'सु' को 'अम्' आदेश।
व्याव्यम् - 'अमिपूर्वः' सूत्र से पूर्वरूप आदेश हुआ।

१०. स्त्रैणः

स्त्री ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'स्त्रीपुंसाभ्यां नास्नऔ भवनात्' से अपत्य आदि अर्थों में नञ् प्रत्यय।
स्त्री+ङस्+नञ् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपोधातु प्रादिपदिकयोः
सुप् (ङस्) कालुक।
स्त्री+नञ् - नञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
स्त्री+न - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि ईकार को वृद्धि ऐकार
स्त्रैन् - 'अटकुरवाङ्नुम्व्यवायेऽपि' से नकार को णकार होकर।
स्त्रैण - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में स्वौजसमौट० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
स्त्रैण + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
स्त्रैणर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
स्त्रैणः - यह रूप सिद्ध हुआ।

११. पौंस्नः

पुंस्+ ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'स्त्रीपुंसाभ्यां नञ्स्नऔ भवनात्' से स्नञ्
पुंस्+ङस्+स्नञ् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोछात्रप्रातिपदिकयो:' से सुप् (ङस्) का लुक्
पुंस्+स्नञ् - स्नञ् के अनुबन्धों को हटाने पर
पुंस्+स्न - 'स्वादिष्कसवनामस्थाने' से पुंस् की पद संज्ञा होकर 'संयोगान्तस्य लोपः' से सकार का लोप
पुंस्न - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार को वृद्धि औकार होकर
पौंस्न - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङयारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट० '
से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
पौंस्न + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
पौंस्नर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
पौस्नः - यह रूप सिद्ध हुआ।

१२. औपगवः

उपगु + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में तस्यापत्यम्' से अज् प्रत्यय
उपगु+ङस्+अण् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुषोधातुप्रातिपदिकयोः’
सुप् (ङस् का लुक्)
उपगु+ अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
उपगु+अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार को वृद्धि - औकार।
औपगु+अ - 'ओर्गुणः' से अन्त्य उकार को गुण-ओकार औपगो +अ- 'एयोऽयवायावः' से ओकरा को अव् आदेश।
औपगाष - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०
से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु स् प्रत्यय
औपगव+स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
औपगवर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर।
औपगवः - यह रूप सिद्ध हुआ।

१३. गार्ग्यः (गर्गस्य गोत्रा पत्यम्)

गर्ग+ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'गर्गादिभ्योयञ्' से गोत्रायत्य अर्थ में यञ्
गर्ग+ङस्+यञ्
सुप् (ङस्) का लोप - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सपोधातुप्रातिपदिकयों'
गर्ग+यञ् - यञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
गर्ग+य - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि - आकार
गर्ग+य - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप
गार्ग्य - पुनः प्रातिपदिक. संज्ञा होने पर 'यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
गर्ण्य+स् - ससजुषो रु: से रुकार को रु (र्)
गार्ग्यर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
गार्ग्यः - यह रूप सिद्ध हुआ है।

१४. गार्ग्यायणः

गर्ग+ङस् - ‘समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'गर्गादिभ्योयञ्' से गोत्रायत्य अर्थ में यञ्
गर्ग+ङस् +यञ् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सपोधातुप्रातिपदिकयोः' से सुप् (ङस्) का लोप
गार्ग+यञ् - यञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
गर्ग+य - 'तद्धितेष्वचामादेः' से युवापत्य अर्थ में फक् (फ) प्रत्यय
गार्ग्य+फ - 'आयवेनेयीनीयियः कढखदवां प्रत्ययादीनाम्' से फकार को आयन्
गार्ग्य + आयन्+अ - 'यस्येति च' से पुनः अन्त्य अकार का लोप होकर
गार्ग्य + आयन्+अ- 'अटकुप्वाङ्नुम्व्यवापेऽपि' से नकार को णकार होकर
गार्ग्यायण - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्
से प्रथमा के एकवचनं की विवक्षा में सु (स) प्रत्यय
गार्ग्यायण + स् - 'ससजुषो रुः से रुकार को रु (र्)
गार्ग्यायणर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
गार्ग्यायणः - यह रूप सिद्ध हुआ है।

१५. मीमांसकः

मीमांसा अम्+ वुन् - मीमांसा अम् इस द्वितीयान्त समर्थ सुबन्त से 'क्रमादिभ्यो वुन सूत्र से
वुन प्रत्यय।
- कृत्तद्धित समासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रतिपदिक संज्ञा
मीमांसा + वुन् - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रातिपदिक के अवयव सुप् (अस्) का लोप मीमांस+ वुन् - 'नकार' की हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः सूत्र से लोप
मीमांसा+अक - 'यूवोरनाकौ' सूत्र से 'वु' को अक आदेश
मीमांस्+अक - 'यस्येति च ' सूत्र से भ संज्ञक अन्त्य अकार का लोप।
मीमांसक+सु - 'सामान्य की विवक्षा में 'सामान्ये नपुंसक' सूत्र से नपुंसकलिंग में होने से प्रथमा एकवचन में 'स्वौजसमौट् ०' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय
मीमांसक+स् - 'ससजुषो रु: सूत्र से 'स्' का रु आदेश
मीमांसक + र् - 'उपदेशेऽजनुनाजिकइत्' सूत्र में डकार' की इत्संज्ञा तथा 'तस्यलोपः' से लोप।
मीमांसकः - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' सूत्र से र् को विसर्ग आदेश।
मीमांसकः - यह रूप सिद्ध होता है।

१६. वैद:

विद् + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'अनुष्यानन्तर्ये विदादिभ्योऽज्' से गोत्रापत्य
अर्थ में अञ् प्रत्यय।
विद+ङस् +यञ्  - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सपोधातुप्रातिपदिकया: ' सुप् (ङस्) का लुक्।
विद्+अञ् - अञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
विद+अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि इकार को वृद्धि ऐकार
वेद+अ - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप
वैद - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
वैद+स् - 'ससजुषो रु: से सकार को रु (र्)
वैदर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
वैद: - यह रूप सिद्ध हुआ !

१७. पौत्रः

पुत्र + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'अनृष्यानन्तर्पे विदादिभ्योऽञ्' से अनन्तर अपत्य अर्थ में अञ् प्रत्यय।
पुत्र+ङस् +अञ् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो: 'सुप् (ङस्) का लुक्।
पुत्र + अञ् - अञ् के अनुबन्ध को हटाने पर
पुत्र + अ - ' तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि - औकार
पुत्र + अ - ' यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप पौत्र+अ
पौत्र - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
पौत्र + स् - 'ससजुषो रु: से सकार को रु (र)
पौत्रर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को सकार होकर
पौत्र - यह रूप सिद्ध हुआ।
नड + जस्+ङ्मतुप

१८. नड्वान्

नड + ङमतुप् - नडजस् इस प्रथमान्त समर्थ शब्द से सामान्यतः अण प्रत्यय को बाधित करके तद् अस्मिन् अस्ति इस अर्थ में 'कुमुदनडवेतसेभ्योङमतुप् ' सूत्र में 'डमतुप्' प्रत्यय।
- कृत्तद्धित समासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा
नड + ङमतुप् - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रतिपदिक के अव्व सुप् (जस्) का लोप
नड + मत् - पकार की 'हलन्त्यम्' सूत्र के 'उकार' की उपदेशेऽजनुनासिक इत् सूत्र से तथा 'ड्' की 'चुटू' सूत्र से इत्स तथा तस्यलोपः सूत्र से लोप
- अचोऽन्त्यादि 'टि' सूत्र से नड की टि संज्ञा
नड्+मत् - ङित् होने से टे:' सूत्र से नड् की टि (अ) का लोप
नड् + मत् - 'झम:' सूत्र से 'म' को 'व' आदेश
'नड्वत्+सु - सामान्य की विवक्षा में 'सामान्ये नपुंसक' सूत्र से नपुंसक लिंग में होने से 'प्रथमा एकवचन' में 'स्वौजसमौट्०' इत्यादि सूत्र से सुप्रत्यय आया।
नड्वत्+स् - 'उपदेशडजनुनासिकहत्' सूत्र से उकार की इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप।
- अलोऽन्त्याहंपूर्व उपधा' सूत्र से उपधा संज्ञा।
नड्वात्+स् - आत्सन्तस्य च धातो' सूत्र से उपधा दीर्घ।
नड्वा+नुम्+त्+स् - ‘उगिदचां सर्वनाम स्थाने च' सूत्र से 'नुम्' का आगम।
नड्वा+न्+त्+स् - म् की 'हलन्त्यम्' सूत्र से नु की 'उपदेशेऽनुनासिक इत् सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः सूत्र से लोप।
- परस्परं संयोगः' सूत्र से संयोग संज्ञा।
नड्वान+स् - 'संयोगान्तस्य लोपः ' सूत्र से संयोग संज्ञक 'तकार' का लोप
नड्वान - 'हलङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्पपृक्तं हल' सूत्र से 'सकार' का लोप
नड्वान् - यह रूप सिद्ध हुआ।

१९. शैवः

शिव + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'शिवादिभ्योऽण्' से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय।
शिव + ङस् + अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः ' से सुप् (ङस्) का लुक्।
शिव+अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने
शिव + अ - ' तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि ऐकार
शैव + अ - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप होकर
शैव - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ० ' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
शैव+स् - 'ससजुषो रु: से रुकार को रु (र्)
शैवर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
शैव: - यह रूप सिद्ध हुआ।

२०. ग्रामीणः

ग्राम डि+खञ् - 'ग्राम ङि' इस सप्तम्यन्त सुबन्त से 'तत्र जात: ' अथवा 'तत्रभव:' इस अर्थ
में 'ग्रामादुपखत्र' सूत्र से 'खञ्' प्रत्यय हुआ।
ग्राम ङि+ख - 'खञ्' के 'ञ' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा 'तस्यलोपः' सूत्र से लोप।
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा।
ग्राम्+ख - 'सुपोधातु प्रतिपदिकयो:' सूत्र से सुप् (ङि) का लोप हुआ।
ग्राम + ईण्+अ - 'अटकुप्वाङ्नुमत्यवायेऽपि' सूत्र से 'न्' को 'ण्' आदेश।
ग्रामीण+सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'स्वौरसमौट०' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय हुआ। ग्रामीणः - 'सु' को रुत्व विसर्ग होकर यह ग्रामीण: रूप सिद्ध हुआ।

२१. वासिष्ठः

वसिष्ठ + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'त्र + ष्यब्धकवृष्णिकुसभ्यश्च' से अपत्य
अर्थ में अण् प्रत्यय।
वसिष्ठ+ङस्+अण् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' सुप् (ङस्) का लुक्।
वसिष्ठ+अण् - अण् के अनुबन्धों को हटाने पर
वसिष्ठ +अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि - आकार।
वसिष्ठ+अ - 'यस्येति चं' से अन्त्य अकार का लोप होकर।
वासिष्ठ - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ० ' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
वासिष्ठ + स् - 'ससजुषो रु से रुकार को रु (र्)
वासिष्ठर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को सकार होकर
वासिष्ठः - यह रूप सिद्ध हुआ।

२२. राष्ट्रियः

राष्ट्र डि+घ - 'राष्ट्र ङि' इस सुबन्त से 'तत्र जातः' अथवा उत्पन्न हुआ इस अर्थ में 'राष्ट्रऽवारपाराद्धरवौ' सूत्र से 'घ' प्रत्यय हुआ।
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा होकर।
राष्ट्र+घ - 'सुपोधातु प्रतिपदिकयो:' सूत्र से प्रातिपदिक के अवयव सुप् (ङि) का लोप हुआ। राष्ट्र+इय्+अ - 'आपनेयीनीयियः फढखछ्द्यां प्रत्ययादीनाम्' सूत्र से 'घ' को इय् आदेश। राष्ट्र+इय्+अ - 'पस्येति च ' सूत्र से भ संज्ञक अन्त्य अकार का लोप।
राष्ट्रिय + सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'स्वौरसमौट०' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय आया। राष्ट्रियः - 'सु' को 'सत्व' विसर्ग होकर रूप सिद्ध हुआ।

२३. वासुदेवः

वसुदेव-स् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'त्र + ष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय।
वसुदेव+ङस्+अण् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सुप् (ङस्) का लुक्।
वसुदेव + अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
वसुदेव+अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि - आकार
वासुदेव+अ - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०'से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय आया।
वासुदेव + स् - 'ससजुषो रुः से रुकार को रु (र्)
वासुदेवर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
वासुदेवः - यह रूप सिद्ध हुआ।

२४. गोमयम्

गो डि+मयट् - गो ङि इस सुबन्त से 'गोश्च पुरीषे' सूत्र से मयर् प्रत्यय आया।
गो डि+मय - 'मपट्' के 'टू' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप।
गो+मय - कृत्तद्धित समासाश्च सूत्र से समग्रप्रत्यय की प्रतिपदिक संज्ञा।
गोमय + सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'स्वौजसमौट०' इत्यादि सूत्र से 'सु' प्रत्यय
गोमय + अम् - 'अतोऽम्' सूत्र से 'सु' को 'अम्' आदेश गोमय+अम्
गोमयम्- 'अमिपूर्वः' सूत्र से पूर्वरूप एकादेश होकर शब्द बना। २५. द्वैमातुरः
द्वि-मातृ+ओस् - ‘समर्थानां प्रथमाद्वा के अधिकार में 'मातुरुत्संख्यासंभद्रपूर्वामा:' से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय तथा मातृ के त्र+कार के स्थान पर उर् (उत्) आदेश
द्विमात् उर+ओस्+अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से तद्धितं संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सुप् (ओस) का लुक्।
द्वेमातुर्+अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
द्विमातुर् + अ - ' तद्धितेष्वचामादे:' से आदि इकार को वृद्धि - ऐकार
द्वैमातुर - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
द्वैमातुर+स् - 'ससजुषो रु: से सकार को रु (र्)
द्वैमातुर - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' रे रेफ को विसर्ग होकर
'द्वैमातुरः - ' यह रूप सिद्ध हुआ।

२६. श्रेष्ठः

प्रशस्य ङस् इष्ठन् - प्रशस्य ङस् इस सुबन्त से 'अथिशायनेतमविष्ठनौ' सूत्र से 'इष्ठन् ' प्रत्यय आया।
प्रशस्य ङस् + इष्ठ - 'न्कार' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः सूत्र से लोप। - 'कृत्तद्धित समासाश्च' सूत्र से समग्रसमुदाय की प्रतिपदिकं संज्ञा।
प्रशस्य+इष्ठ - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रतिपादिक के अवयव सुप् ङस् का लोप।
श्र+ इष्ठ - 'प्रशस्यस्य श्र:' सूत्र से प्रशस्य को 'श्री' आदेश।
- 'टे' सूत्र से 'श्र' की टि 'अ' के लोप की प्राप्ति।
श्र+ इष्ठ -
श्रे+ ष्ठ - किन्तु 'प्रकृत्यैकाच्' सूत्र से प्रकृतिभाव
श्रेठ + सु - 'आदयुषः' सूत्र से गुण एकादेश।
श्रेठ+सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'स्वौजसमौट०' इत्यादि से 'सु' प्रत्यय आया।
श्रेष्ठः - सु को सत्व विसर्ग होकर यह रूप सिद्ध हुआ।

२७. पण्डितः

पण्डा - ङस् + इतच् - पण्डा ङस् इस सुबन्त से 'तदस्यसञ्जातं तारकादिभ्य इतच्' सूत्र स 'इतच्' प्रत्यय आया।
पण्डा + ङस् + इत् - 'इतच्' के 'च' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप।
- कृत्तद्धित समासाश्च सूत्र से समग्रसमुदाय की प्रतिपदिक संज्ञा होकर |
पण्डा + इत् - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रतिपादिक के अवयव सुप् ङस् का लोप।
पण्डित + सु - प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'स्वौजसमौट०' इत्यादि से 'सु' प्रत्यय आया। पण्डितः - को सत्व विसर्ग होकर यह रूप सिद्ध हुआ।

२८. वैनतेयः

विनता+ङस् - ‘समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'स्त्रीभ्यो ढक्' से अपत्य अर्थ में ढक्
विनता+ङस्+ढक् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः ' से सुप् (ङस्) का लोप
विनता+ढक् - ढक् के अनुबन्ध को हटाने पर
विनता+ढ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि इकार को वृद्धि ऐकार
वैनता+ढ - 'आपनेमीनीयियः फढखद्दयां प्रत्ययादीनाम्' से ढकार के स्थान पर एम् आदेश। वैनत् - एयृवैनतेय पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
वैनतेप+स् - 'ससजुषो रु: से रुकार को रु (र्)
वैनतेयर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
वैनतेयः - यह रूप सिद्ध हुआ।

२९. सहायता।

सहाय + आम्+तत् - सहाय+आम् इस षष्ठयन्त से समूह अर्थ में प्रकृत गज्सहायाभ्यां चेति
वक्तव्यम् वार्तिक द्वारा तल् प्रत्यय आया।
सहाय + आम्+त - तल् के लकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप।
- कृत्तद्धित समासाश्च से प्रतिपदिक संज्ञा
सहाय+त - 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' से सुप् का लोप।
- तलन्तः इस लिंगानुशासकीय सूत्र के अनुसार तत् प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिंग में प्रयोग होता है।
सहायत+टाप् - अजाद्यतष्टाप् से टाप् प्रत्यय आया।
सहायत+आ - टाप् के पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा व टकार की 'चुट' से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप।
सहायता - अकः सवर्णे दीर्घः से सवर्ण दीर्घ
- कृत्तद्धितसमासाश्च' में प्रतिपादिक संज्ञा
सहायता+सु - ङ्याप्प्रातिपदिकात् से सु आया।
सहायता + स् - सु के उकार की उपदेशेऽजनुनासिक इत् की इत्संज्ञा व तस्यलोपः से लोप
सहायता - 'हलङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल' से अपृक्त सकार का लोप।
सहायता - यह रूप सिद्ध हुआ।

३०. पाञ्चालः

पाञ्चाल+अ - पाञ्चाल शब्द से जनपद शब्दात् क्षत्रिया दज द अत्र प्रत्यय,
पाञ्चाल+अ - आदि वृद्धि और आकार लोप होकर प्रतिपदिक संज्ञा विभक्ति कार्य वर्ण
पाच्चालः यह रूप सिद्ध हुआ।

३१. कुत्र

किम् + त्रल् - किम् शब्द से सब्तभ्यास्रल् से त्रल् प्रत्यय अनुबन्ध लोप
किम् +त्र - और कुतिहो : से किम् का कु आदेश प्रातिपदिक संज्ञा विभक्ति कार्य,
कु+त्र - वर्ण सम्मेलन होकर
कुत्र - यह रूप सिद्ध हुआ। .

३२. कानीनः

कन्या +ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'कन्यायाः कनीन च' से अण् प्रत्यय तथा कन्या के स्थान पर कनीन आदेश।
कनीन+ङस्+अण् - ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' से सुप् (ङस्) का लुक्।
कनीन+अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
कनीन+अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि आकार
कानीन+अ - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप
कानीन - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'यारप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय।
कानीन + स् - 'ससजुषो रु: से रुकार को रु (र्)
कानीनर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
कानीनः - यह रूप सिद्ध हुआ।

३३. राजन्यः

राज्ञोऽपत्यं जाति: - राजा की सन्तान क्षत्रिय जाति
राजन्+यत् - राजश्वराद्यत् सूत्र से राजन् शब्द से यत् प्रत्यय आया
राजन्+प यत् के यत् के त् की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप कृत्तद्धितसमासाश्च सूत्र से प्रतिपदिक संज्ञा
- 'स्वौजसमौट०' से 'सु' आदि प्रत्यय।
-  राजन्य + सु प्रथमा वि. एकवचन की विवक्षा में सु आया।
राजन्य: - 'सु को सत्व विसर्ग होकर राजन्य: सिद्ध हुआ।

३४. क्षत्रियः

क्षत्र + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'क्षत्राद् घः' से जाति अर्थ में घ प्रत्यय।
क्षत्र + ङस् +घ - ''कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो: ' से सुप् (ङस्) का लुक्।
क्षत्र+घ - ''आपनेयीनीयिः फढावद्दघां प्रत्यादीनाम्' से घकार के स्थान पर इय् आदेश क्षत्र+इघ्+अ - ''यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप
क्षत्रिय - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०'
से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय आया।
क्षत्रिय + स् - 'ससजुषो रु: से सकार के स्थान पर रु. (इ)
क्षत्रियर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
क्षत्रियः - 'यह रूप सिद्ध हुआ।

३५. पित्र्यम्।

पितृ + यत् - 'वाम्वृतुपित्रुज्सो यत् सूत्र से पितृ शब्द से साऽस्य देवता इसी अर्थ में यत् प्रत्यय आया।
पितृ +य पच् के तकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
पित् + री + य रीङ् त्र+तः से त्र+ को री हो जाता है।
- पति भम् सेपित् + री की भ संज्ञा
पित् + र् + य यस्येतिव से भ संज्ञक अन्त्य ईकार का लोप
- कृत्तद्धित समासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
- स्वौजसमौट०' से सु आदि प्रत्यय।
पित्र्य + सु - प्रथमा विभक्ति एकवचन की विवक्षा में सु आया
पित्र्य + अम् - अतोऽम् से नपुंसक की विवक्षा में सु को अमद् आदेश
पित्र्यम् - अभिपूर्व से पूर्वरूप होकर पित्र्यम् सिद्ध हुआ।

३६. पार्थिवः

पृथिव्याः ईश्वरः - पृथिवी का स्वामी पार्थिव
पृथिवी + अञ् - पृथिवी शब्द से उनका स्वामी अर्थ द्योतित होने पर तस्येश्वरः सूत्र से अञ्
प्रत्यय आया।
पृथिवी + अ - अञ् का अनुबन्ध लोप करने पर अ
पार्थिवी + अ - तद्धितेष्वचामादेः से आदि वृद्धि त्र + की ओर
-
यचिभम् से पार्थिवी की भ संज्ञा
पार्थिव + अ यस्येतिच से भ संज्ञक आकार का लोप
- कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
- स्वौजसमौट०' से सु आदि प्रत्यय।
पार्थिव + सु - प्रथमा वि० एकवचन की विवक्षा में सु आया
पार्थिवः - सु का सत्व विसर्ग होकर पार्थिवः सिद्ध हुआ।

३७. रैवतिकः

रेवती + ङस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'रेवत्यादिभ्यष्क् से अपत्य अर्थ में ठक्
रेवती + ङस् + ठक् - कृत्तद्वितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयोः से सुप् (ङस्) का लोप
रेवती + ठक् - ठक् के अनुबन्धों को हटाने पर
रेवती + ठ - 'ठस्येक:' से ठकार के स्थार पर इक् आदेश
रेवती + इक् + अ - 'किति च' से आदि एकार को वृद्धि ऐकार होकर
रेवती + इक् - 'यस्येति च' से अन्त्य ईकार का लोप
रैवतिक - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
रैवतिक + स् - ससजुषोः रु: से सकार के स्थान पर रु (र)
रैवतिकर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
रैवतिकः - यह रूप सिद्ध हुआ।

३८. कौरव्यः

कुरु + आम् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'कुरुनादिभ्योण्यः' से अपत्य अथवा राजा
अर्थ में ण्य प्रत्यय।
कुरु + आम् + ण्य - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयो:' से सुप् (आम्) कालुक्
कुरु + ण्य - ण्य के अनुबन्ध को हटाने पर
कुरु + य 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार को वृद्धि - औकार
कौरु + य - 'ओर्गुणः से उकार को गुण - ओकार
कौरो + य 'वान्तो यि प्रत्यये' से ओकार को अव् आदेश होकर
कौरव्य - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङयाप्प्रातिपदिकात्' के अधिकारों में 'स्वौजसमौट ० '
से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
कौरव्य + स् - 'ससजुषो स:' से सकार को रु (र्)
कौरव्यर् - 'खरवसावयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
कौरव्य: - यह रूप सिद्ध हुआ।

३९. कम्बोज:

कम्बोज + आम् - ‘समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'जनपदशब्दात् क्षत्रियादज्' से 'तत् राजा' अर्थ में अज् प्रत्यय।
कम्बोज + आम् + अज् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयो:' से सुप् (आम्) का लुक्।
कम्बोज + अज् - 'कम्बोजाल्लुक् से अञ् प्रत्यय लोप होकर
कम्बोज - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
कम्बोज + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
कम्बोजर् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रफ को विसर्ग होकर
कम्बोज : - यह रूप सिद्ध हुआ।

४०. औत्सः

उत्स + अज् - अज् में अ शेष रहता है।
उत्स + अ
औत्स + अ - तद्धितेष्ववचामादेः से आदि अच् '5' को वृद्धि होकर औ हो जाता है।
औत्स् + अ - 'यस्येति च' सूत्र से अन्त्य अकार का लोप होकर प्रातिपदिक संज्ञा, स्वादिकार्य होकर औत्सः रूप बना।

४१. काषायम्

कषाय + टा - ‘समर्थाना प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'तेन रक्तं रागात्' से 'रंगा हुआ' इस अर्थ में अण् प्रत्यय
कषाय + टा + अण - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो' से सुप् (टा) का लुक्।
कषाय + अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
कषाय + अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि अकार को वृद्धि आकार
काषाय + अ - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्ययं
काषाय + सु - 'अतोऽम्' से नपुंसकलिंग में सु को अम् आदेश
काषाय + अम् - 'अभिपूर्वः' से पूर्वस्य एकादेश होकर
काषायम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

४२. कौशाम्बी

कुशाम्बेन निर्वृत्ता नगरी - कुशाम्ब के द्वारा बसाई हुई नगरी
कुशाम्ब + अण् - कुशाम्ब शब्द से तेन निर्वृत्तम सूत्र से उसने बसाया इस अर्थ में तद्धित संज्ञक अणु प्रत्यय आया।
कुशाम्ब + अ - अण् के अनुबन्धों का लोप
कौशाम्ब + अ - तद्धितेष्वचामादेः से आदि वृद्धि
- पचि अन् से कौशाम्ब की भ संज्ञा
कौशाम्ब + अ - यस्येति चसे भ संज्ञक के अन्त अकार का लोप
कौशाम्ब + ङीप् - कौशाम्ब से स्त्रीत्व की विवक्षा में सत्रीत्व बोधक ङीप् प्रत्यय हुआ।
कौशाम्ब + ई - ङीप् के ङ्कार की लश्क्वक्तद्विते से इत्संज्ञा तथा पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
- यचि भम् से कौशाम्ब की पुनः भ संज्ञा
कौशाम्ब + ई - यस्येतिच से भ संज्ञक अन्त अकार का लोप
- 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा
- स्वौजसमौट०' से सु आदि प्रात्यय
कौशाम्बी + सु - प्रथमा वि० एक० की विवक्षा में सु आया
कौशाम्बी + स् - उपदेशऽजनुनासिक इत् से सु के उकार की इत्संज्ञा
कौशाम्बी - हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् से अपृक्त सकार का लोप होकर कौशाम्बी सिद्ध हुआ।

४३. पौषम्

पुष्य + टा - 'समर्थायं प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'नक्षत्रेण युक्त काल:' से अण् प्रत्यय
पुष्य + टा + अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर सुपो धातु प्राति पदिकयो: से सुप् (टा) का लोप
पुष्य + अण्-  अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
पुष्य + अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार की वृद्धि औकार 'यस्चेति च' से अन्त्य अकार का लोप
पौष्य् + अ - 'तिष्यपुष्पयोर्नक्षत्राणि यलोप इति वरूयम्' इस वार्तिक से प्रकार का लोपहोकर।
पौष - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात' के अधिकार में
'स्वौजसमौट०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय
पौष + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् आदेश
पौष + अम् - 'अभिपूर्वः' से पूर्वरुप समादेश होकर
पौषम् - यह रुप सिद्ध हुआ।

४४. चतुर्थः

चतुर् + डट् - तस्य पूरणे डट् सूत्र से षष्ठयन्त सांख्य विशेष वाची चतुर शब्द से इट् प्रत्यय आया
चतुर्+ अ - इट् के डकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा टकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्यलोपः से लोप
चतुर् + थुक् + अ - षटकति कतियपचतुरां थुक् से चतुर शब्द को थुक् का आगम होता है आद्यन्तौ टकितौ से यह चतुर का अन्त अवयव होगा।
चतुर + थ् + अ - थुक् के नकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा उ उच्चारकार्थक है
कृत्तद्धित समासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा
स्वौजसमौट०' से सु आदि प्रत्यय
चतुर्थ + सु - प्रथमा वि० एक० की विवक्षा में सु आया।
चतुर्थ:- सु - का सत्व विसर्ग होकर चतुर्थः सिद्ध हुआ।

४५. शुक्रियम्

शुक्र + सु - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'शुकाद् घन्' से वह इसका देवता है, इस अर्थ में घन् प्रत्यय।
शुक्र + सु + घन् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः ' सुप् (सु) का लुक्
शुक्र + घन् - घन् के अनुबन्ध को हटाने पर
शुक्र + घ - 'आयनेयीनीयिप कढखद्ययां०' से घकार को इम् आदेश
शुक्र + इय् + अ - 'यस्येति च' से शुक्र के अन्त्य अकार का लोप होकर
शुक्रिय - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय।
शुक्रिय + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् आदेश
शुक्रिय + अम् - 'अमिपूर्व:' से पूर्वरूप एकादेश होकर
शुक्रियम - यह रूप सिद्ध हुआ।

४६. सौम्यम्

सोम + यु - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'सोमाट्टयण' से वह इसका देवता है अर्थ
में ट्यण प्रत्यय
सोम + सु + ट्यण्  - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर सुपोधातु प्रातिपदिकयो:' से सुप् (सु) का लुक्
सोम + ट्यण् - ट्यण् के अनुबन्धों को हटाने पर .
सोम + य - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि ओकार को वृद्धि औकार
सौम + य - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप होकर
सौम्य - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट०
से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सुप्रत्यय है।
सौम्य - 'अतोऽम् से सु को अम् आदेश
सौम्य + अम् - अभिपूर्वः से पूर्व रुप एकादेश होकर
सौम्यम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

४७. द्रढिमा

दृढ़स्य भावः - इस विग्रह में 'दृढ़' शब्द से 'व्यञ्' के अभाव पक्ष में 'इमनिय' प्रत्यय होता है।
इ तथा च की इत्संज्ञा तथा लोप होकर दृढ़ व्यज् (अभाव पक्ष में)
द्रढ़ + इनम - र त्र+तो हलादेर्लघोः से त्र+ को
दृढ़ + इनम्र र् आदेश
द्रढ़ि + मन - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप दृढ़ि + मन प्रतिपादिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर द्रढ़िमा रूप सिद्ध हुआ।

४८. द्वितयम्

'द्वौ अवयवौ - अस्य' इस विच्छेद में 'द्वि' शब्द सङरत्थाया अवयवे तयप् से 'तयप्' प्रत्यय होता है।
द्वि + तयप् - प्रकार की इत संज्ञा तथा लोप होकर
द्वि + तय - द्वितय प्रातिपदिक संज्ञा तथा
स्वादिकार्य होकर 'द्वितयम्' रूप सिद्ध हुआ है।

४९. काकम्

काकं + आम् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'तस्य समूह:' से समूह अर्थ में अण् प्रत्यय
काक + आम् + अण - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातु प्राति पदिक्यों: से सुप् (आम्) का लुक्।
काक + अण् - अण् के अनुबन्ध के हटाने पर
काक़ + अ - ' तद्धितेष्वचामादे:' से आदि आकार को वृद्धि आकार
काक + अ - 'पस्येति च' से काक के अन्त्य अकार का लोप
काक - पुनः प्रतिपदिक संज्ञा होने पर 'ङयाप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्०' के प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय
काक + सु - 'अतोऽम्' से सु को अम् आदेश
काक + अम् - अभिपूर्वः से पूर्वरूप एकादेश काकम् - यह रूप सिद्ध हुआ।
५०. यशस्वी
यशः अस्यास्ति - इस विग्रह में यशस् शब्द से 'अस्मायामेधासजो विनिः' से विकल्प से विनि (विन्। प्रत्यय) यशस् + बिन् - यशस्विन यहां त सौ मत्वर्थे से भ संज्ञा होने के कारण 'स्' को रुत्व - विसर्ग नहीं होता है। प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर यशस्वी रूप बनता है।

५१. भूपान्

'अयम् अनयोः अतिशयेन बहु:' इस विग्रह में बहु शब्द से 'द्विवचन विभज्योपपदे' तरवीयसुनौ से ईयसुन् प्रत्यय। बहु + ईयस्
भू + यस् - बहिर्लोपो भू च वहो : सूत्र से ईयस् के भू + यस् ई का लोप तथा बहु का भू आदेश, भूयस् - प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर भूयान् रूप बना।

५२. अस्मदीयः

आवयोः अस्माकं वा अयम् इस विग्रह में 'अस्मद्' शब्द से 'मुष्मदस्मवोरन्यतास्था खञ् च' सूत्र से 'छ' प्रत्यय, आपनेयीनिपः सें छ' को ईय्' आदेश,
अस्मद् + ईप् - अस्मदीप प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अस्मदीप:' शब्द बनता है।

५३. यौवनम्

युवति + आम् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'भिक्षादिभ्योऽण्' से समूह अर्थ में अण् प्रत्यय।
युवति + आम् + अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर सुपो धातु प्रातिषदिवयोः में सुप् (आम्) का लोप
युवति + अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
युवति + अ - 'भस्याढे तद्धिते' इस वार्तिक से पंवद्भाष होने पर युवति से युवन् प्राप्त हुआ।
युवन् + अ - यहाँ 'इनण्यनपत्ये' से प्रकृतिभाव प्राप्त होने पर 'नस्तद्धिते' से हि भाम अन् का लोप नहीं होता।
युवन् + अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार को वृद्धि - औकार
यौवन - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङयाप्प्रातियदिकाल्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट्. ' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में शु प्रत्यय |
यौवन + सु - 'अतोऽम्' से स् को अम् आदेश।
यौवन + अम् - 'अभि पूर्व:' से पूर्वस्य एकादेश होकर
यौवनम् - यह रूप बनता है

५४. धार्मिक

धार्मिक : धर्म चरति - इस विग्रह में 'धर्म' शब्द से 'धर्म चरति' सूत्र से 'ठकृ प्रत्यय' 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप, ठस्येकः सूत्र में 'ठ' को 'इक्' आदेश, 'कृति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य, 'अ' का लोप, धाम् + इक धार्मिक, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर धार्मिकः यह रूप सिद्ध होता है।

५५. जनता

जन + आम् - समर्थानां प्रथमाद्वा के अधिकार में 'ग्रामजन बन्धुभ्यस्तल्' से समूह अर्थ में. तल् प्रत्यय
जन + आम् + तल् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातु प्रातिपदिकयोः से सुदूर आम् का लुक
जन + तत् - तल् के अनुबन्ध को हटाने पर
जनत - तलन्तं स्त्रियाम् नियम का विवक्षा में अजाद्यतष्टाप् से आप् (आ) प्रत्यय
जनत + आ - 'अकः सवर्णे दीर्घः से दीर्घ आदेश
जनता - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट० '
से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय
जनता + सु - 'हल्ङ ्याब्भ्यो दीर्घात०' से सु का लोप होकर
जनता - यह रूप सिद्ध हुआ।

५६. वाराणसेयम्।

वाराणसेयम् वाराणस्या भवम् अथवा वाराणस्यां जातम् इस अर्थ में वाराणसी शब्द से 'नद्यादिभ्यो ढक्' से ढक् प्रत्यय होता है। 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है। 'ढ' को 'एय' आदेश अदिवृद्धि अन्त्य 'ई' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वाराणसेयम्' रूप बनता है।

५७. हास्तिकम्

हस्तिन + आम - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'अचित्तह०' से स्यूत अर्थ में ठक्ंं प्रत्यय।
हस्तिन् + आम् + ठक् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातु प्रातिपदिकयों: से सुप, 'आम का लोप
हस्तिन् + ढक् - ढक के अनुबंध को हटाने पर
हस्तिन् + ठ - 'ठस्येकः से ठ को इक् होकर
हस्तिन् + इक् - 'कितिच' से आदि अच् अकार को वृद्धि - आकार
हास्तिन + इक - 'नस्तद्धिते' से टि भाग-इव् का लोप
हास्तिक - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में
स्वौजसमौट्० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु प्रत्यय
हास्तिक + सु - 'अतोऽम्' से सुको अम् आदेश
हास्तिक + अम् - 'अमिपूर्व' से पूर्वरूप एकादेश होकर
हास्तिकम् - यह रूप सिद्ध हुआ।

५८. शाद्वल:

शादाः सन्ति अस्मिन् देशे इस विच्छेद में 'शाद' शब्द से 'नशादाङ् ड्वलच्' से 'डवलच' प्रत्यय होता है। 'डललेच्' में वलू शेष रहता है। डित् होने से टेः से अ (टि) का लोप प्रातिपादक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर शाद्वल रूप सिद्ध होता है।

५९. पैरोहित्यम्

पुरोहितस्य भावः कर्म वा इस विग्रह में पुरोहित शब्द से 'पत्यन्त पुरोहितादेभ्यो यक' से 'यक्' प्रत्यय होता है। 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप, कितिच्' से आदिवृद्धि 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर पौरोहित्यम् रूप बनता है।

६०. वैयाकरणः

व्याकरण + अम् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'तदधीते तद्वेद से अण् प्रसन
व्याकरण + अम् + अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपो धातु पादिपदिकयो:' से सुप् (अम्) का लोप।
व्याकरण + अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
व्याकरण + अ - यहाँ तद्धितेष्व चामादेः से आदि अच् को वृद्धि प्राप्त है किन्तु 'न थ्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी तु ताभ्यामैच् से उसका निषेध होकर यकार के पूर्व एकार आगम
वैयाकरण + अ - 'यस्येति च' से अन्त्य अकार का लोप
वैयाकरण - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ० ' से प्रथमा के एकवचन में सु (स्) प्रत्यय
वैयाकरण + सु - 'ससजुषो रु' से सकार को स (र्)
वैयाकरणर् - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
वैयाकरण : - यह रूप सिद्ध होता है।

६१. बान्धवः

बान्धवः - बन्धुः एव (बन्धु) - इस विग्रह में बन्धु शब्द से 'प्रज्ञादिभ्यश्च' से क्षण (अ) प्रत्यय आदि वृद्धि ओर्गुणः' से उ को गुण ओ, ओ को अव् आदेश बान्धव, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादि कार्य होकर बान्धव रूप बनता है।

६२. शिक्षक:

शिक्षा + अम् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'क्रमादिभ्यो वुन्' से वह पढ़ता है या जानता है अर्थ में वुन प्रत्यय
शिक्षा + अम् + वुन् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातु प्रातिपदिकयो' से सुप् (अम्) का लोप
शिक्षा + वुन् - वुन् के अनुबन्ध को हटाने पर
शिक्षा + वु - 'युवोरनाकौ' से वु को अक् होकर
शिक्षा + अक - 'यस्येति च' से अन्त्य आकार का लोप
शिक्षक - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट ० ' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु स् प्रत्यय
शिक्षक + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र्)
शिक्षक - 'खखसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
शिक्षक: - यह रूप सिद्ध हुआ।

६३. औदुम्बरः

उदुम्बर + जस् - 'समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में तदस्मिनास्तीति देशे तन्नाम्नि से अण् प्रत्यय।
उदुम्बर + जसु + अण् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातुप्रातिपदिवयोः सुप् (जस्) का लोप
उदुम्बर + अण् - अण् के अनुबन्ध को हटाने पर
उदुम्बर + अ - 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदि उकार को वृद्धि - औकार
औदुम्बर + अ - 'यस्येति च से अन्त्य अंकार का लोप
औदुम्बर - 'पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ङ्याप्प्रातिपदिकात् के अधिकार में 'स्वौजसमौट् ०
से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
औदुम्बर + स् - 'ससजुषो रु' से सकार को रु (र)
औदुम्बस् - 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' से रेफ को विसर्ग होकर
औदुम्बरा: - यह रूप सिद्ध हुआ।

६४. ग्राम्य:

ग्रामे जातः ग्रामे भवः या (गाँव में उत्पन्न) इस अर्थ में ग्राम शब्द से 'ग्रामाद् यख जौ' से य प्रत्यय होता है। 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ग्राम्य रूप बनता है।

६५. ज्ञातेयम्

ज्ञातेयम् - ज्ञातेः भावः कर्म वा इस विच्छेद में 'ज्ञाति' शब्द से 'कपिज्ञात्योर्दक्, से ढक् प्रत्यय होता है। 'क' की इत्संज्ञा तथा लोपः किति च' से अदिवृद्धि यस्येति च' से अन्त्य 'इ' का लोप आयनेयोनीयियः फढरवछघां ब्रत्पयादीनाम से 'ढ' को एव आदेश प्राति पदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ज्ञातेयम् रूप बनता है।

६६. कुमुदवान्

कुमुद + जस् - 'समर्थाना प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'कुमुदनऽवेतसेभ्यो ड्यतुप् से ड्यतुप् प्राप्य
कुमुद + जस् + ड्मतुप् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर सुपोधातु प्रातिपदिकयो:' से सुप् (जस) का लोप
कुमुद + ङमतुप - ङमतुप् के अनुबन्धों को हटाने पर
कुमुद + मत् - 'नस्तद्धिते' से टि भाग-आकार का लोप
कुमुद + मत् - 'भाय: से मत्' के मकार को वकार होकर
कुमुदवत् - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'ड्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौज०' से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु (स्) प्रत्यय
कुमुद्वत् + स - 'उगिदचां सर्वनाम०' से नुम् (न्) का आगम
कुमुदवन् त् + स् - 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से दीर्घादेय
कुमुद्वान ल् + स् - 'हल्ङयाब्भ्यो दीर्घात् ०' से स् का लोप
कुमुदवान् त् - संयोगान्तस्य लोप: से अन्त्य तकार का लोप होकर
कुमुदवान् - यह रूप सिद्ध होता है।

६७. गंगा

गंगायाः अपत्यम् - यहाँ गंगा - शब्द से अपराध के अर्थ में 'शिवादिभ्योऽण' से अण, प्रत्यय, आदि वृद्धि, अन्त्य अकार का लोप, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'गंगा' रूप बनता है।

६८. औपनिषदः

उपनिद्भिः प्रतिपादितः - उपनिषदों के द्वारा जिसका प्रतिपादन किया गया है।
उपनिषद् + अण् - उपनिषद् शब्द से शेषे सूत्र से उपनिषद्भिः प्रतिपादित: इस अर्थ में तद्धितसंज्ञक अणू प्रत्यय आया
उपनिषद् + अ - अण् के णकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा ताचल्यपे: से लोप
औपनिषद् + अ - तद्धितेष्वचामादेः से आदि वृद्धि
- कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपादिक संज्ञा
- स्वौजसमौट० से सु आदि प्रत्यय
औपनिषद् + सु प्रथमा वि० एक० की विवक्षा में सु आया
औपनिषदः - सु का रुत्व विसर्ग होकर औपनिषदः सिद्ध हुआ।

६९. नैषध्य

निषधानाम् अपत्यं पुमान् अथवा निषधानां राजा यहाँ जनपद तथा क्षत्रियवाचक नकारादि 'निषध' शब्द से 'कुरुनादिभ्यो ण्यः' से 'ण्य' प्रत्यय होता है। 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप तद्धितेष्वचामादेः से अदिवृद्धि 'इ' को 'ऐ' अन्त्य अकार का लोप प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादि कार्य होकर नैषध्य रूप बनता है।

७०. सौम्यम्

सोमो देवता अस्य इस अर्थ में 'सोम' शब्द से -  'सोमाट्टयन' से 'टयण' प्रत्यय होता है। 'टयण' के 'ट' तथा 'ण' की इत्संज्ञा तथा 'लोप' (सोम + य' इस दशा में 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि अन्त्य अकार लोप, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सौम्यम्' रूप बनता है। .

७१. वेतस्वान

वेतस् + जस् - ‘समर्थानां प्रथमाद्वा' के अधिकार में 'कुमुदनऽवेत सेभ्यो मतुप' से ऽभतुप् प्रत्यय
वेतस् + जस् + इ॒मनुप् - 'कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक संज्ञा होने पर 'सुपोधातु प्रातिपदिकयो:' से सुप (जस) प्रत्यय।
वेतस् + ड्मतुप् - ड्मतुप् को अनुबन्धों को हटाने पर
वेतस् + मत् - 'मादुपधापाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः' से मत् को मकार को वकार
वेतस्वत् - पुनः प्रातिपदिक संज्ञा होने पर ङ्याप्प्रातिपदिकात्' के अधिकार में 'स्वौजसमौट० से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सुप्रत्यय
वेतस्वत् + सु - सु 'उगिदचां सर्वनाम' से नुम् (न्) आगम
वेतस्वन् त् + सु 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ से दीर्घादेश
वेतस्वान् त् + सु - 'हल्ङयाब्भ्यो दीर्घात०' से सु का लोप
वेतस्वान् त् - 'संयोगान्तस्य लोपः' से अन्त्य तकार का लोप होकर'
वेतस्वान् - यह रूप सिद्ध हुआ।

७२. गर्गा:

यहाँ - गोत्र प्रत्यय यञ् प्रत्यय
गार्ग्य शब्द से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन
गार्ग्य + यञ्
गार्ग्य - 'पञञोश्च' सूत्र से यञ् प्रत्यय का लोप हो जाता है। प्रातिपदिक संज्ञा, सवादिकार्य होकर 'गर्गा:' रूप बनता है।

७३. भाद्रमातुरः

भाद्र मातृ ओस् समर्थानां प्रथमाद्वा के अधिकार में 'मातुसत्संस्या:' से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय तथा मातृ के त्र+कार के स्थान पर उ- आदेश। भद्रमातुर + अण् - अण् अनुबन्ध को
हटाने पर भाद्रमातुर +अ- स्वौजसमौट से स प्रत्यय होने पर।
भाद्रमातुर + स् ससजुषो रु' से सकार को स 'र' खरवसालयोर्विसर्जनीयः रे रेफ को विसर्ग होकर भाद्रमातुरः यह रूप सिद्ध हुआ।

७४. भिक्षुकः

भिक्षु+ अम् - 'समर्थानां प्रथमाङ्ग के अधिकार में क्रमादिभ्यो वुन' से पुन् प्रत्यय।
भिक्षु वुन अनुबन्ध लोप
भिक्षु + वु - 'युवारनामौ' से वु का अक् होकर। भिक्षु + अक यस्येति च' से अन्त्य आकार का लोप।
भिक्षुक + स - स्वौजसमौट: से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु स् प्रत्यय।
भिक्षुक + स् - ससजुषो स: से र्
भिक्षुक - 'खरवसानयो.' से रेफ का विसर्ग होकर भिक्षुक यह रूप सिद्ध हुआ।

७५. मातुल

मातुल (मातुर्भ्राता - माँ का भाई, मामा) यहाँ मातृ शब्द से भ्राता अर्थ में डुलच् प्रत्यय का निपात्तन हुआ। डुलच् का उल रहा और ङित् होने से उससे परे रहते। पितृत्व मातुल-मातामह- पितामहाः सूत्र से मातुल रूप बना।

७६. तदीयः।

तदीयः (तस्य अयम्, उसका) यहाँ इत्यादि होने से तद् शब्द की त्यदादीनि 'च' से वृद्ध संज्ञा हुई। तब 'वृद्धात् छः ' सूत्र से छ प्रत्यय और उसके छकार को पूर्ववत् ईय् आदेश होकर तदीय: रूप सिद्ध होता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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